ग़ज़ल - फ़ैसले का वक़्त

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फ़ैसले का वक़्त तो कल पर ही टलता रह गया
दुनिया के साँचे में मैं चुपचाप ढलता रह गया

खिड़कियों से छन के आती धूप से जागा हुआ
*ख़्वाबीदा आँखों को अपनी मैं मसलता रह गया

उठ के महफ़िल से मेरी सब यार अपने घर गए
एक अकेला मैं दिये के साथ जलता रह गया

क्यों *किताब-ए-माज़ी को ले कर मैं बारिश में रहा
*हर्फ़ सारे मिट गए बस एक धुँधलका रह गया

मेरे घर को जाती दिन की आखिरी वो ट्रेन थी
जिसपे मैं कुछ सोंच कर चढ़ने से डरता रह गया

एक ख़त उसने मुझे चमकीली स्याही से लिखा
पढ़के जिसको ख़्वाब में जुगनू पकड़ता रह गया

― प्रकाश

[ ख़्वाबीदा - dreamy,
किताब-ए-माज़ी - book of past,
हर्फ़ - letters ]

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