हमारी शायरी में सच कहाँ है

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हमारी शायरी में सच कहाँ है
कि हमने ज़िंदगी में क्या किया है

कभी जो रफ़्तगाँ की याद आई
तो उसके घर का रस्ता ले लिया है

किताबों से ही बातें हो रही हैं
किताबों के सिवा कमरे में क्या है

बहुत मुश्किल था हाँ-में-हाँ मिलाना
सो हमने उससे झगड़ा कर लिया है

बना कर दूजे-तीजे की कहानी
वो अपने राज़ हमपर खोलता है

जहाँ भी मिल रहा हो दाना-पानी
परिंदों का तो बस इतना पता है

ये एक मासूमियत जो खो रही है
यही दुनिया में जीने की सज़ा है

ये रंग-ओ-रौशनी से जगमग बाज़ार
ये कुछ पैसों से ज़्यादा माँगता है

इजाज़त तो नहीं लेता है लेकिन
हमारी ख़ामोशी पहचानता है

हमारी बातें तो सब याद हैं पर
वो अपने वादे अक्सर भूलता है

नहीं रूस्वा करूँगा तेरी कहानी
क्यूँ इन शेरों में खुद को ढूँढता है

― प्रकाश

[ रफ़्तगाँ - memory of dead and gone ]

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