निस्बत

Keywords: #nazm #poem

हमें कब ये आरज़ू थी तेरी दास्ताँ में आते
किसी एक सफ़हे पर हम दोनों के नाम आते
नहीं थी हमारी ज़िद ये तेरी महफ़िलों में आयें
बस इतना ही था काफ़ी दुश्मन न हम कहलाते

मेरी सुबह के उजाले, मेरे शब का चैन ले कर
तेरी याद चाहती थी, मुझे फिर से कैद करना
क़ैदी रहे बहुत दिन, तेरी याद के कफ़स में
जो निकल के आ गए हैं, नई लग रही है दुनिया

हुई तेरे दम से जितनी भी दुनिया भर से निस्बत
मझे राह अपनी आसाँ उनसे भी कुछ हुई है
तू अजनबी के शानों पे सर रखे हो बेशक़
मुझे है खुशी कि तुझसे वाबस्तगी रही है

― प्रकाश

[ सफ़हा - page,
कफ़स - prison,
निस्बत - connection,
शानों - shoulders ]

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